शनिवार, 30 मई 2020

पुलिस हिरासत (पुलिस कस्टडी) और न्यायिका हिरासत (जुडिशल कस्टडी) में फर्क-------

इन दोनों का एक ही उद्येश्य है समाज में अपराध को कम करना. 
  जानते हैं कि इन दोनों शब्दों में क्या अंतर है.
      किसी आरोपी व्यक्ति को पुलिस कस्टडी और ज्यूडिशियल कस्टडी में भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता (CRPC) के नियमों के हिसाब से रखा जाता है. पुलिस कस्टडी तथा ज्यूडिशियल कस्टडी दोनों में संदिग्ध को कानून की हिरासत में रखा जाता है. दोनों प्रकार की कस्टडी का उद्येश्य व्यक्ति को अपराध करने से रोकना होता है.


जब भी पुलिस किसी व्यक्ति को हिरासत में लेती है तो वह अपने जांच को आगे बढ़ाने के लिए CrPCकी धारा 167 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट से 15 दिन तक के लिए हिरासत में रखने का समय मांग सकती है. एक न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी भी व्यक्ति को 15 दिनों तक किसी भी तरह के हिरासत में भेज सकता है.
#2                             लेकिन कुछ ऐसे कानून होते हैं जिनके तहत पुलिस किसी आरोपी को 30 दिनों तक भी पुलिस कस्टडी में रख सकती है. जैसे महाराष्ट्र
संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम 1999 (मकोका) के तहत पुलिस
कस्टडी को 30 दिनों तक के लिए बढ़ाया जा सकता है.
       हालाँकि ऐसे कई प्रावधान हैं जो अवैध गिरफ्तारी के खिलाफ
सुरक्षा उपलब्ध करते हैं. यदि किसी की गिरफ़्तारी दण्ड प्रक्रिया संहिता के सेक्शन 46 के अनुसार नहीं हुई है तो उसकी गिरफ़्तारी वैध नहीं मानी जाती है.
#3
हाइलाइट्स:-
  • पुलिस कस्टडी में पुलिस हवालात जबकि जुडिशल कस्टडी में जेल में रखा जाता है.
  • पुलिस कस्टडी 24 घंटे से ज्यादा की नहीं हो सकती जबकि जुडिशल कस्टडी के लिए अलग नियम.
  • चार्जशीट दाखिल होने के बाद पुलिस कस्टडी में नहीं रखा जा सकता है.
  • कस्टडी और अरेस्ट वैसे कस्टडी यानी किसी को हिरासत में लेना और अरेस्ट यानी गिरफ्तार करना सुनने में एक जैसा लगता है। लेकिन दोनों अलग है। गिरफ्तार करने का मतलब है किसी व्यक्ति को पुलिस हिरासत में लेना जबकि हिरासत का मतलब किसी व्यक्ति पर नजर रखना या उसकी गतिविधियों पर आंशिक या पूरी तौर पर पाबंदी लगा देना। लेकिन यह सही है कि हर गिरफ्तारी में हिरासत होती है लेकिन हर हिरासत में गिरफ्तारी नहीं होती है। आमतौर पर पुलिस की अपराध की छानबीन,किसी अपराध को होने से रोकने और किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को होने वाले नुकसान से बचाने के लिए किसी इंसान को गिरफ्तार करती है।
  • गिरफ्तार करने से एक व्यक्ति की निजी आजादी खत्म हो जाती है। वैसे कानून में अवैध गिरफ्तारी से एक व्यक्ति को बचाने के लिए कई प्रावधान किए गए हैं।
  • #4
  • पुलिस हिरासत (पुलिस कस्टडी) और न्यायिका हिरासत (जुडिशल कस्टडी) में फर्क-------
पुलिस कस्टडी में आरोपी को पुलिस लॉकअप में रखा जाता है जबकि जुडिशल कस्टडी में कोर्ट की कस्टडी यानी जेल में रखा जाता है। किसी संज्ञेय अपराध के लिए FIR दर्ज करने के बाद पुलिस किसी आरोपी को गिरफ्तार कर सकती है। गिरफ्तारी इस उद्देश्य से किया जाता है कि साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ न हो या गवाहों को धमकाया नहीं जाए।
 पुलिस कस्टडी-----
                  जब पुलिस को किसी व्यक्ति के बारे में सूचना या शिकायत / रिपोर्ट प्राप्त होती है तो सम्बंधित पुलिस अधिकारी अपराध में शामिल संदिग्ध को गिरफ्तार कर लेती है जिससे कि उस व्यक्ति को आगे भी अपराध करने से रोका जा सके. जब इस प्रकार का संदिग्ध व्यक्ति पुलिस हवालात में बंद कर दिया जाता है तो उसे पुलिस कस्टडी कहा जाता है. इस हिरासत के दौरानमामले के प्रभारी पुलिस अधिकारीसंदिग्ध से पूछताछ कर सकते हैं. ध्यान रहे कि संदिग्ध व्यक्ति की हिरासत अवधि 24 घंटों से अधिक की नहीं होनी चाहिए. इस मामले में शामिल पुलिस अधिकारी का यह दायित्व होता है कि वह संदिग्ध व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर उचित न्यायाधीश के समक्ष पेश करे और उसके खिलाफ सबूत पेश करे. यहाँ पर यह बताना जरूरी है कि इस 24 घंटे के समय में उस समय को नहीं जोड़ा जाता है जो कि संदिग्ध को पुलिस स्टेशन से कोर्ट लाने में खर्च होता है.
#5
ज्यूडिशियल कस्टडी का अर्थ क्या है?
ज्यूडिशियल या न्यायिक कस्टडी का मतलब है कि व्यक्ति को संबंधित मजिस्ट्रेट के आदेश पर जेल में रखा जायेगा. ध्यान रहे कि पुलिस कस्टडी में व्यक्ति को जेल में नहीं रखा जाता है. आपने सुना होगा कि कोर्ट ने आरोपी व्यक्ति को 14 दिन की ज्यूडिशियल हिरासत में भेज दिया है.
 अब पुलिस कस्टडी और ज्यूडिशियल कस्टडी के बीच अंतर समझते हैं;
1. पुलिस कस्टडी में व्यक्ति को "पुलिस थाने" में पुलिस द्वारा की गयी कार्यवाही के कारण रखा जाता है जबकि ज्यूडिशियल कस्टडी में आरोपी को "जेल" में रखा जाता है.
2. पुलिस कस्टडी तब शुरू होती है जब पुलिस अधिकारी किसी संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेती है जबकि ज्यूडिशियल कस्टडी तब शुरू होती है जब न्यायाधीश आरोपी को पुलिस कस्टडी से जेल भेज देता है.
3. 
पुलिस कस्टडी में रखे गए आरोपी व्यक्ति को 24 घंटे के अन्दर किसी मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना पड़ता है लेकिन ज्यूडिशियल कस्टडी में रखे गए व्यक्ति को तब तक जेल में रखा जाता है जब तक कि उसके खिलाफ मामला अदालत में चलता है या जब तक अदालत उसे जमानत पर रिहा नहीं कर देती है.
#6
4. पुलिस कस्टडी में पुलिस आरोपी व्यक्ति को मार पीट सकती है ताकि वह अपना अपराध कबूल कर ले. लेकिन यदि कोई व्यक्ति सीधे कोर्ट में हाजिर हो जाता है तो उसे सीधे जेल भेज दिया जाता है और वह पुलिस की पिटाई से बच जाता है. यदि पुलिस को किसी प्रकार की पूछताछ करनी हो तो सबसे पहले न्यायाधीश से आज्ञा लेनी पड़ती है. हालाँकि उसके जेल में रहते हुए भी पुलिस उसके खिलाफ सबूत जुटाती रहती है ताकि सबूतों को जज के सामने पेश करके आरोपी को अपराधी साबित करके ज्यादा से ज्यादा सजा दिलाई जाए.
5. 
पुलिस कस्टडी की अधिकतम अवधि 24 घंटे की होती है जबकि ज्यूडिशियल कस्टडी में ऐसी कोई अवधि नहीं होती है.
6. जो जमानत पर रिहा अपराधी होते हैं वैसे मामलों में आरोपी को पुलिस कस्टडी में नहीं भेजा जाता और पुलिस कस्टडी तब तक ही रहती है जब तक कि पुलिस द्वारा चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती है. एक बार चार्जशीट दाखिल हो जाने पर पुलिस के पास आरोपी को हिरासत में रखने का कोई कारण नहीं बचता है.
7. 
पुलिस कस्टडीपुलिस द्वारा प्रदान की जाने वाली सुरक्षा के अंतर्गत होता है जबकि ज्यूडिशियल कस्टडी में गिरफ्तार व्यक्ति न्यायाधीश की सुरक्षा के अंतर्गत होता है.
8. 
पुलिस कस्टडी किसी भी अपराध जैसे हत्या,लूटअपहरणधमकीचोरी इत्यादि के लिए की जाती है जबकि ज्यूडिशियल कस्टडी को पुलिस कस्टडी वाले अपराधों के अलावा कोर्ट की अवहेलना,जमानत ख़ारिज होने जैसे केसों में लागू किया जाता है.
ऊपर दिए गए अंतरों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पुलिस कस्टडी और ज्यूडिशियल कस्टडी दोनों का उदेश्य एक ही है
  • #7
  • पुलिस कस्टडी की अवधि-------
  • पुलिस कस्टडी तब शुरू होती है जब पुलिस अधिकारी किसी संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेता है जबकि जुडिशल कस्टडी तब शुरू होती है जब न्यायाधीश आरोपी को पुलिस कस्टडी से जेल भेज देता है। पुलिस कस्टडी की अवधि 24 घंटे की होती है। 24 घंटे के अंदर पुलिस को किसी कोर्ट के समक्ष आरोपी को पेश करना होता है। लेकिन जुडिशल कस्टडी की कोई तय समयसीमा नहीं होती। जब तक मामला चलता रहे या संदिग्ध आरोपी जमानत पर रिहा न हो जाएजुडिशल कस्टडी चलती रहती है।
  • अगर पुलिस किसी व्यक्ति के खिलाफ चार्जशीट दाखिल कर देती है तो फिर उस व्यक्ति को पुलिस कस्टडी में नहीं रखा जा सकता है। अगर किसी व्यक्ति की जमानत खारिज भी हो जाती है तो उसको पुलिस हिरासत में नहीं दिया जा सकता है।
  • किसी भी अपराध जैसे हत्यालूटपाटअपहरणचोरीधमकी आदि के मामले में पुलिस कस्टडी होती है जबकि कोर्ट की अवहेलना और अन्य मामलों में जुडिशल कस्टडी होती है। 
  • #8
  • रिमांड-------
  • कानूनी जानकार बताते हैं कि किसी मामले में की गई गिरफ्तारी के बाद जांच एजेंसी पूछताछ के लिए आरोपी को रिमांड पर ले सकती है। आरोपी को गिरफ्तार कर अदालत में पेशी के बाद 14 दिनों तक पूछताछ के लिए रिमांड पर लिया जा सकता है। हालांकि जांच एजेंसी को अदालत को बताना होता है कि किस कारण रिमांड चाहिए। इसके लिए उसे अदालत के सामने तथ्य पेश करने होते हैं और अदालत जब जांच एजेंसी की दलीलों से संतुष्ट होती हैतभी आरोपी को रिमांड पर भेजा जाता है।
  • दोबारा रिमांड -------
  • पुलिस रिमांड पर लिए जाने के बाद अगर आरोपी को न्यायिक हिरासत में भेज दिया जाए और दोबारा जांच में कोई नया तथ्य सामने आ जाए और आरोपी से दोबारा पूछताछ की जरूरत हो तो आरोपी को दोबारा रिमांड पर लिया जा सकता है लेकिन यह सब गिरफ्तारी के 14 दिनों के भीतर ही हो सकता हैउसके बाद नहीं। अगर गिरफ्तारी के 14 दिनों बाद जांच एजेंसी को कोई पूछताछ करनी है तो वह अदालत की स्वीकृति मिलने के बाद आरोपी से जेल में पूछताछ कर सकती है।
  • #9
  • कब मिलेगी जमानत-------
  • पुलिस रिमांड के बाद आरोपी को जब तक जमानत न मिलेउसे न्यायिक हिरासत में रखने का प्रावधान है। चार्जशीट दाखिल होने तक आरोपी की न्यायिक हिरासत 14 -14 दिनों के लिए बढ़ाई जाती हैजबकि चार्जशीट दाखिल होने के बाद न्यायिक हिरासत की अवधि मुकदमे की तारीख के हिसाब से बढ़ाई जाती है। कानूनी जानकार ने बताया कि सीआरपीसी की धारा-167 (2) के तहत समय पर चार्जशीट दाखिल न किए जाने पर टेक्निकल ग्राउंड पर जमानत दिए जाने का प्रावधान है।
  • अगर आरोपी के खिलाफ ऐसा मामला दर्ज होजिसमें 10 साल कैद से कम सजा का प्रावधान है तो टेक्निकल ग्राउंड पर आरोपी को जमानत दिए जाने का प्रावधान है,बशर्ते जांच एजेंसी ने आरोपी की गिरफ्तारी के 60 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल नहीं की हो।
  • 10 साल कैद या उससे ज्यादा सजा वाले मामले में अगर गिरफ्तारी के 90 दिनों के भीतर आरोपी के खिलाफ चार्जशीट दाखिल नहीं की जातीतो जमानत मिल जाती है।
  • वहीं kSका मामले में गिरफ्तारी के 30 दिनों तक पुलिस रिमांड पर लिए जाने का प्रावधान है। ऐसे मामले में अगर आरोपी के खिलाफ दर्ज केस में 10 साल से कम सजा का प्रावधान है तो चार्जशीट दाखिल करने के लिए 90 दिनों का समय होता है। इस अवधि में चार्जशीट नहीं होने पर आरोपी को जमानत मिल जाती है। 

बुधवार, 27 मई 2020

क्या है IPC और CrPC में अंतर, कब बना था ये कानून ?

क्या है IPC और CrPC में अंतर, 

कब बना था ये कानून ?

#1
IPC और CrPC. इनमें तय किया जाता है कि, किन प्रक्रियाओं के तहत अपराधी को गिरफ्तार किया जाए. 
जानते हैं पूरी जानकारी-----

IPC --- 

                    यानी इंडियन पेनल कोड जिसे हिंदी में भारतीय दंड संहिता  कहते हैं. IPC में कुल मिलाकर 511 धाराएं    ( Sections) और 23 chapters हैं. 1834 में पहला विधि आयोग (first law of commission) बनाया गया था. इसके चेयरपर्सन लॉर्ड मैकॉले थे.आपको जानकर हैरानी होगी कि विश्व का सबसे बड़ा दांडिक संग्रह (IPC) से बड़ा देश में और कोई भी दांडिक कानून नहीं है.

#2

क्या है CrPC------

              CrPC की  इंग्लिश में 'कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर' और हिंदी में 'दण्ड प्रक्रिया संहिता' कहते है.  इसका कानून  1973 में पारित हुआ और 1 अप्रैल 1974 से लागू हुआ था.

              जब भी कोई अपराध होता है उसमें दो तरह की प्रक्रिया होती है. पहली पुलिस किसी अपराधी की जांच करने के लिए अपनाती है. एक प्रक्रिया पीड़ित के संबंध में और दूसरी आरोपी के संबंध में होती है.

  #3

क्या है IPC और CrPC में क्या अंतर-----

इस कानू को कानून को दो हिस्से में बांटा गया है:

1. मौलिक विधि (Substantive law)

2. प्रक्रिया विधि (Procedural Law)

        मौलिक विधि और प्रक्रिया विधि को फिर से  दो भागों में बांटा जाता है. सिविल कानून (Civil law) और दाण्डिक कानून (Criminal Law).  

    जिसमें सिविल कानून (Civil law) को IPC और  दाण्डिक कानून (Criminal Law) को  CrPC कहते हैं.

        IPC, (Substantive law) है और 

         CrPC (Procedural Law) है.

#4

IPC और CrPC कानून

IPC- ये अपराध की परिभाषा करती है और दण्ड का प्रावधान की जानकारी देती है

CrPC- आपराधिक मामले के लिए किए गए प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी देती है. इसका उद्देश्य आपराधिक प्रक्रिया से संबंधित कानून को मजबूत करना है.

#5

क्या है उद्देश्य------

                 इसका मुख्य उद्देश्य पूरे भारत में एक तरह का पीनल कोड लागू किया जा सके ताकि अलग-अलग क्षेत्रीय कानूनों की जगह एक ही कोड हो सके. इसी के साथ ये IPC और CrPC कानून खराब व्यवहार की इजाजत नहीं देता. गलत व्यवहार करने पर अपराधी को इससे नुकसान पड़ता है.

 

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#6

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#7

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