बुधवार, 25 नवंबर 2020

संपत्ति का अधिकार एक मूल्‍यवान संवैधानिक अधिकार, केंद्र से मालिक को जमीन लौटाने को कहा..सुप्रीम कोर्ट का फैसला

 सुप्रीम कोर्ट का फैसला
संपत्ति का अधिकार एक मूल्‍यवान संवैधानिक अधिकार, केंद्र से मालिक को जमीन लौटाने को कहा..

#1

खास बातें

  • मामला बेंगलूरू में रक्षा उद्देश्‍य के लिए भूमि अधिग्रहण से जुड़ा
  • सुप्रीम कोर्ट ने 33 साल बाद मालिक को जमीन वापस दिलाई
  • यह मामला दो बार कर्नाटक हाईकोर्ट में गया था


                  

            इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को तीन महीने के भीतर बेंगलुरु में 2 एकड़ और 8 गुंटा की जमीन उसके मालिक को सौंपने का निर्देश दिया जो शहर में प्रमुख स्थान पर है. SC का यह भी कहना है कि जमीन रखने के लिए मालिक, केंद्र से मुआवजे का दावा कर सकता है .

#2                        नई दिल्ली: 

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने एक अहम फैसले में कहा है कि संपत्ति का अधिकार (Right To Property) एक मूल्यवान संवैधानिक अधिकार (Valuable Constitutional Right) है. बेंगलूरू में भूमि अधिग्रहण से जुड़े एक मामले में SC ने 33 साल बाद मालिक को जमीन दिलाई है. मामले में तीन महीने में केंद्र सरकार को जमीन वापस करने के आदेश दिया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा, संपत्ति का अधिकार एक मूल्यवान संवैधानिक अधिकार है. सरकारें यह नहीं कह सकती कि उन्हें किसी भी कानून के बिना किसी की संपत्ति पर कब्जा करने का अधिकार है.किसी भी कानून  के बिना सरकार को किसी संपत्ति पर अधिकार जारी रखने की अनुमति देना अराजकता को माफ करने जैसा है. अदालत की भूमिका लोगों की स्वतंत्रता के गारंटर और चौकन्ने रक्षक के रूप में कार्य करने की है.

  #3               इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को तीन महीने के भीतर बेंगलुरु में 2 एकड़ और 8 गुंटा की जमीन उसके मालिक को सौंपने का निर्देश दिया जो शहर में प्रमुख स्थान पर है. SC का यह भी कहना है कि जमीन रखने के लिए मालिक, केंद्र से मुआवजे का दावा कर सकता है. अदालत ने कहा है कि अगर मालिक मुआवजे के लिए मध्यस्थता पर आगे बढ़ता है तो इसे 6 महीने के भीतर तय किया जाना चाहिए. पीठ ने केंद्र को कानूनी कार्यवाही की लागत के लिए मालिक को 75,000 रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया है. SCने कहा कि हालांकि संपत्ति का अधिकार भारत के संविधान के भाग III के तहत संरक्षित मौलिक अधिकार नहीं है लेकिन फिर भी यह एक मूल्यवान संवैधानिक अधिकार है.

#4                दरअसल यह संपत्ति 1964 में मुआवजे को तय करके रक्षा उद्देश्यों के लिए केंद्र द्वारा ली गई थी. यह मामला दो बार कर्नाटक हाईकोर्ट में गया और अदालत ने हालांकि केंद्र के खिलाफ कहा कि सरकार के दावे की कोई योग्यता नहीं है,लेकिन मालिक को भूमि सौंपने से इनकार कर दिया क्योंकि ये जमीन केंद्र द्वारा रक्षा उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल की रही थी. जस्टिस  ने ये फैसला सुनाया.

  #5                   फैसले में कहा गया कि हाईकोर्ट ने भूमि मालिक को राहत देने से इनकार करने में त्रुटि की. अदालत ने कहा कि किसी को इस तरह से किसी को संपत्ति से दूर रखने के लिए 33 साल भारत में भी एक लंबा समय है, इसलिए, यह अब राज्य के लिए खुला नहीं है. अपने किसी भी रूप (कार्यपालिका, राज्य एजेंसियों, या विधायिका) में यह दावा करने के लिए कि कानून या संविधान को अनदेखा किया जा सकता है, या अपनी सुविधा पर अनुपालन किया जा सकता है. चाहे यह संघ हो या कोई राज्य सरकार, किसी दूसरे की संपत्ति (कानून की मंज़ूरी के बिना) पर कब्जा करने के लिए अनिश्चितकालीन या ओवरराइडिंग अधिकार है, ये  अराजकता को माफ करने से कम नहीं है. 

#6                   अदालतों की भूमिका लोगों की स्वतंत्रता की गारंटर और चौकन्ना रक्षक के रूप में कार्य करना है. अदालत द्वारा किसी भी तरह की माफी ऐसे गैरकानूनी कार्यपालिका के व्यवहार का एक सत्यापन है जो इसे  किसी भी भविष्य के उद्देश्य से, भविष्य में किसी भी प्राधिकारी के हाथ में "सशस्त्र हथियार" के रूप में तैयार करेगा. याचिकाकर्ता के वकील  ने तर्क दिया था कि भूमि अधिग्रहण खत्म हो गया था लेकिन केंद्र ने याचिकाकर्ता का विरोध करते हुए कहा कि शीर्ष अदालत को उच्च न्यायालय के फैसले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और यह एक विवाद था जिसे सिविल कोर्ट द्वारा तय किया जाना है. 

#7

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#8

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#9


बुधवार, 4 नवंबर 2020

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-13 बी (2) में वर्णित छह महीने की कूलिंग ऑफ पीरियड अनिवार्य नहीं है

  आपसी सहमति तलाक़ ,छह महीने की कूलिंग ऑफ पीरियड की अनिवार्यता नहीं है

'Mutual Divorce and Cooling Period"

सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला,

#1                               सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा कि जब हिंदू पति-पत्नी के बीच रिश्ते सुधरने की जरा भी गुंजाइश रह जाए तो दोनों की आपसी सहमति से तुरंत तलाक की इजाजत दी जा सकती है।


 

शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसे मामले में आपसी सहमति से दी गई अर्जी के बाद छह महीने की कूलिंग ऑफ पीरियड की अनिवार्यता को भी खत्म किया जा सकता है।

#2

     न्यायमूर्ति की पीठ ने छह महीने के कूलिंग ऑफ पीरियड की कानूनी बाध्यता को हटाते हुए कहा कि उद्देश्य विहीन शादी को लंबा खिंचने और दोनों पक्षों की पीड़ा बढ़ाने का कोई मतलब नहीं है।

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हालांकि वैवाहिक संबंध बरकरार रखने के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए लेकिन जब दोनों पक्षों पर इसका कोई असर हो तो उन्हें नया जीवन शुरू करने का विकल्प देना ही बेहतर होगा।

#3                           पीठ ने कहा, ‘हमारा मानना है कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-13 बी (2) में वर्णित छह महीने की कूलिंग ऑफ पीरियड अनिवार्य नहीं है बल्कि यह एक निर्देशिका है।

           ऐसे मामलों के साक्ष्य और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए अदालत अपने अधिकार का इस्तेमाल कर सकती है।हालांकि अदालत को यह भी लगना चाहिए दोनों पक्षों के बीच सुलह के तनिक भी आसार नहीं है।

#4                        सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए कुछ शर्तें निर्धारित की  है किस तरह आपसी सहमति पर तलाक की अर्जी दायर करने के एक हफ्ते बाद कूलिंग ऑफ पीरियड को खत्म करने का आवेदन दाखिल किया जा सकता है।

                                   नियम के मुताबिक, पति-पत्नी आपसी सहमति से तलाक की अर्जी तब दाखिल कर सकते हैं जब वे एक वर्ष से अलग रह रहे हों। पीठ ने कहा है कि एक वर्ष बाद तलाक की अर्जी दी जाती है और इसके बाद सुलह के सभी प्रयास विफल रह जाते हैं तो दोनों पक्ष बच्चों की कस्टडी, निर्वाह वहन आदि मामला सुलझ चुका हो तो तलाक में देरी का कोई कारण नहीं है।

   #5

धारा 13 हिन्दू विवाह अधिनियम तलाक

विवरण

(1) कोई विवाहभले वह इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् अनुष्ठित 

 हुआ होया तो पति या पत्नी पेश की गयी याचिका पर तलाक की आज्ञप्ति  

द्वारा एक आधार पर भंग किया जा सकता है कि 

(i) दूसरे पक्षकार ने विवाह के अनुष्ठान के पश्चात् अपनी पत्नी या अपने पति से 

 भिन्न किसी व्यक्ति के साथ स्वेच्छया मैथुन किया हैया 
#6
(i-विवाह के अनुष्ठान के पश्चात् अर्जीदार के साथ क्रूरता का बर्ताव किया हैया 

(i-अर्जी के उपस्थापन के ठीक पहले कम से कम दो वर्ष की कालावधि तक 

 अर्जीदार को अभित्यक्त रखा हैया 

(ii) दूसरा पक्षकार दूसरे धर्म को ग्रहण करने से हिन्दू होने से परिविरत हो गया है,

 या 

(iii) दूसरा पक्षकार असाध्य रूप से विकृत-चित रहा है लगातार या आन्तरायिक रूप से इस किस्म के और इस हद तक 

 मानसिक विकार से पीड़ित रहा है कि अर्जीदार से युक्ति-युक्त रूप से आशा नहीं की जा सकती है कि वह प्रत्यर्थी के साथ रहे। 
#7
स्पष्टीकरण 
(इस खण्ड में 'मानसिक विकारअभिव्यक्ति से मानसिक बीमारीमस्तिष्क 

 का संरोध या अपूर्ण विकासमनोविक्षेप विकार या मस्तिष्क का कोई अन्य 

 विकार या अशक्तता अभिप्रेत है और इनके अन्तर्गत विखंडित मनस्कता भी है

() 'मनोविक्षेप विषयक विकारअभिव्यक्ति से मस्तिष्क का दीर्घ स्थायी विकार या 

 अशक्तता (चाहे इसमें वृद्धि की अवसामान्यता हो या नहींअभिप्रेत है जिसके 

 परिणामस्वरूप अन्य पक्षकार का आचरण असामान्य रूप से आक्रामक या  

गम्भीर रूप से अनुत्तरदायी हो जाता है और उसके लिये चिकित्सा उपचार  

अपेक्षित हो या नहींया किया जा सकता हो या नहींया 
#8
(iv) दूसरा पक्षकार याचिका पेश किये जाने से अव्यवहित उग्र और असाध्य 

 कुष्ठ रोग से पीड़ित रहा हैया 

(v) दूसरा पक्षकार याचिका पेश किये जाने से अव्यवहित यौन-रोग से पीड़ित रहा हैया 

(vi) दूसरा पक्षकार किसी धार्मिक आश्रम में प्रवेश करके संसार का परित्याग कर 

 चुका हैया 

(vii) दूसरे पक्षकार के बारे में सात वर्ष या अधिक कालावधि में उन लोगों के  

द्वारा जिन्होंने दूसरे पक्षकार के बारे मेंयदि वह जीवित होता तो स्वभावतसुना 

 होतानहीं सुना गया है कि जीवित है। 
#9
स्पष्टीकरण 
इस उपधारा में 'अभित्यजनपद से विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा अर्जीदार का

  युक्तियुक्त कारण के बिना और ऐसे पक्षकार की सम्मति के बिना या इच्छा के  

विरुद्ध अभित्यजन अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत विवाह के दूसरे पक्ष द्वारा  

अर्जीदार की जानबूझकर उपेक्षा भी है और इस पद के व्याकरणिक रूपभेद  

तथा सजातीय पदों के अर्थ तदनुसार किये जायेंगे। 

(1-विवाह में का कोई भी पक्षकार चाहे वह इस अधिनियम के प्रारम्भ के पहले 

 अथवा पश्चात् अनुष्ठित हुआ होतलाक की आज्ञप्ति द्वारा विवाह-विच्छेद के लिए इस आधार पर कि 

(i) विवाह के पक्षकारों के बीच मेंइस कार्यवाही में जिसमें कि वे पक्षकार थे 

न्यायिक पृथक्करण की आज्ञप्ति के पारित होने के पश्चात् एक वर्ष या उससे  

अधिक की कालावधि तक सहवास का पुनरारम्भ नहीं हुआ हैअथवा 

(ii) विवाह के पक्षकारों के बीच मेंउस कार्यवाही में जिसमें कि वे पक्षकार थे,

 दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की आज्ञप्ति के पारित होने के एक वर्ष 

 पश्चात् एक या उससे अधिक की कालावधि तकदाम्पत्य अधिकारों का 

 प्रत्यास्थापन नहीं हुआ है;याचिका प्रस्तुत कर सकता है। 
#10
(2) पत्नी तलाक की आज्ञप्ति द्वारा अपने विवाह-भंग के लिए याचिका :- 

(i) इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व अनुष्ठित किसी विवाह की अवस्था में  

इस आधार पर उपस्थित कर सकेगी कि पति ने ऐसे प्रारम्भ के पूर्व फिर  

विवाह कर लिया है या पति की ऐसे प्रारम्भ से पूर्व विवाहित कोई दूसरी पत्नी 

 याचिकादात्री के विवाह के अनुष्ठान के समय जीवित थी;परन्तु यह तब जब 

 कि दोनों अवस्थाओं में दूसरी पत्नी याचिका पेश किये जाने के समय  

जीवित होया 

(ii) इस आधार पर पेश की जा सकेगी कि पति विवाह के अनुष्ठान के दिन 

 से बलात्कारगुदामैथुन या पशुगमन का दोषी हुआ हैया 
(iii) कि हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 18 के अधीन वाद में या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अधीन (या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 की तत्स्थानी धारा 488 के अधीनकार्यवाही में यथास्थिति

 डिक्री या आदेशपति के विरुद्ध पत्नी को भरण-पोषण देने के लिए इस बात के होते हुए भी पारित किया गया है कि वह अलग

  रहती थी और ऐसी डिक्री या आदेश के पारित किये जाने के समय से  

पक्षकारों में एक वर्ष या उससे अधिक के समय तक सहवास का पुनरारम्भ  

नहीं हुआ हैया 

(iv) किसी स्त्री ने जिसका विवाह (चाहे विवाहोत्तर सम्भोग हुआ हो या नहीं)

 उस स्त्री के पन्द्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने के पूर्व अनुष्ठापित किया गया था  

और उसने पन्द्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने के पश्चात् किन्तु अठारह वर्ष की 

 आयु प्राप्त करने के पूर्व विवाह का निराकरण कर दिया है। 
#11
स्पष्टीकरण — 
यह खण्ड लागू होगा चाहे विवाहविवाह विधि (संशोधनअधिनियम, 1976 (1976 का 68) के प्रारम्भ के पूर्व अनुष्ठापित                                                      thank you

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#12

5}क्या दूसरी पत्नी को पति की संपत्ति में अधिकार है?

6}हिंदू उत्तराध‌िकार अध‌िनियम से पहले और बाद में हिंदू का वसीयत करने का अध‌िकार

7}निःशुल्क कानूनी सहायता-

8}संपत्ति का Gift "उपहार" क्या होता है? एक वैध Gift Deed के लिए क्या आवश्यक होता है?


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